पूष की रात | Poosh Ki raat

 बिन लिहाफ जो भटका है उससे पूछो पूष की रात।

किसके विरह में सुबक रहा नील गगन में तन्हा चाँद।।


सरोवर के आँगन में छुप के आँख भिगोता है।

प्राणप्रिया से बिछड़ बेचारा रो-रो आधा होता है।।


न जाने कौन सी सौंदर्या उसके हिय लुभा गयी।

जो प्रीतम प्यारे चाँद को भी प्रीत के अगन लगा गयी।।


चला गया वो निर्मोही उसे अकेला छोड़ कर।

चाँद आराम से कैसे सोये बेचैनी की चादर ओढ़ कर।।

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