ग़ज़ल
ये जो कब्र के अन्दर जमीं में सोया है।
बहुत ज़ख्म खाएँ हैं बहुत कुछ खोया है।।
सारा दिन मज़दूर सा करके काम।
शाम कितने सुकूँ से घर में सोया है।।
न चैन न आराम मिला कभी उसे जीवन में।
ख़्वाब जो ऐशो-आराम के सजा के सोया है।।
समेट कर दर्द हजारों अपने दिल में,
अपना सारा प्यार सभी पर लुटा कर सोया है।।
नहीं है कोई भी यहाँ उस शख़्स जैसा।
झूठी मुस्कान लिए जो अश्क़ छिपा के सोया है।।
अंधेरी रात को भगाने के ख़ातिर।
जला के दिल जो रोशनी कर के सोया है।।
किसी कमजोर को जिसने सताया नहीं कभी।
दर्द बाँट कर गले लगा के सोया है।।
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