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सबको अपना यार बनाने की ज़रूरत क्या है।
सबको अपना दर्दे-दिल सुनाने की ज़रूरत क्या है।।
बात मोहब्बत से ही हल हो जाती है अगर।
फिर रक्तरंजित तलवार चलाने की ज़रूरत क्या है।।
जिन्हें गुमाँ है ख़ुद पे नाज़नीं होने का।
उनसे उम्मीद-ए-वफ़ा करने की ज़रूरत क्या है।।
उसने बुलाया मुझे पर मिलना न हुआ मेरा।
अब दोष किस्मत पे लगाने की ज़रूरत क्या है।।
वो चाँद हमारा है ही नहीं, दिल पे जिसका सुरूर है।
तो रात-दिन ख़ुद को तरसाने की ज़रूरत क्या है।।
भूल बैठा वादे जो अपनी, उसकी याद में रो के तुम्हें।
बेचारे दिल को हर शै जलाने की ज़रूरत क्या है।।
बहुत गहरी नींद में सोईं हैं मेरी शरारते।
इन बेज़ान ख़्वाबों को अब जगाने की ज़रूरत क्या है।।
गर ताउम्र तेरा साथ, नसीब मेरे ख़ुदा लिख दे।
फिर तुम्हीं बताओ मुझे ज़माने की ज़रूरत क्या है।।
लफ्ज़ तेरे महफ़िल तेरी शहनाइयाँ भी तेरे नाम की।
फिर गुरु ग़ज़ल कोई मुझे सुनाने की ज़रूरत क्या है।।
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