शिला गान कर रही, भस्म नृत्य कर रहा ।
ईश्वर सभी प्रस्तुत, अद्भुत दृश्य कर रहा।।
यात्रा कोई भी पूर्ण न हो सका।
जीवन का सार सब अकथित अपूर्ण रहा।।
ठहरा ठहरा सा ये पल गतियों को थामकर।
साँस साँस जैसे हर क्षण शनै: शनै: बिखर रहा।।
ये मायावी दुनिया है, सारी झूठी आस है।
आज साँझ ढली, कल नया सवेरा निकल रहा।।
क्या सत्य है क्या असत्य कैसे निर्धारित करें।
पल पल एक तन में चेहरा कई बदल रहा।।
कुछ बिसर जाते हैं स्वयं कुछ को और सिमर आते हैं।
सोमरस भी असर, सब पर कहाँ कर रहा ।।
प्रयास था भुलाने की सुबह से, पीर सदियों का मेरे।
साँझ होते ही हृदय, सुध वही कर रहा।।
कैसे नतमस्तक रहूँ जीवन को ईश्वर के दर।
हर ओर मृत्यु का ही सत्य है बस दिख रहा।।
मिट रहे सँस्कारों का विवेक शिष्टा आजकल।
असभ्यताओं की नकल से स्वयं को महान कर रहा ।।
क्या दें शब्दांश कोई चार लोगों के समाज को।
दिल से दिल तक जब नहीं कुछ असर कर रहा ।।
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