तुम पर अर्पित हे मित्र!
पता नहीं रहे कब तक होंठों पर मुस्कान की धारा
पता नहीं रहेगा कब तक धड़कन से साथ हमारा
जी भरके चाँदनी की शीतलता का दीदार करूँ
पता नहीं फिर मिले न मिले ये स्वछंद गगन सारा।
हे मित्र! तेरे बन्धन का मुझ पर ऐसा रंग चढ़े
कि मुझ पर निशि का, न तनिक सा असर पड़े
कविता, सुर,संगीत लय, तुझपे ही रच दूँ सारा
पता नहीं फिर मिले न मिले ये स्वछंद गगन सारा।।
ये विचलित मन तुमसे ही, मिलकर आनंदित होता है
मेरा सादा जीवन जैसे बस तुमसे अलंकृत होता है
तेरा मेरा बन्धन जैसे एक रेशमी सा किनारा
पता नहीं फिर मिले न मिले ये स्वछंद गगन सारा।
मेरी चेतना शून्य जैसी तेरे भेंट से पूर्व थी
मित्रता की परिभाषा पहले तो अपूर्ण थी
पता नहीं कब तक होगा मैत्रीपूर्ण यात्रा हमारा
पता नहीं फिर मिले न मिले ये स्वछंद गगन सारा।।
जलबिन्दुओं की कल कल सा मेरा हर शब्द ध्वनित
मेरे लेख की अनन्त पंक्तियाँ तेरे लिए से हैं रचित
मित्र नाम की पोटली में मिला मुझे रत्न प्यारा
पता नहीं फिर मिले न मिले ये स्वछंद गगन सारा।
निशिदिन गूंज रही मन मस्तिष्क में जैसे कोई ध्वनि मीठी
कर्णप्रिय बजती है प्रायः दूर कहीं पर बाँसुरी
फिर पाऊँ न पाऊँ तुम तक आता पथ प्यारा
पता नहीं फिर मिले न मिले ये स्वछंद गगन सारा।।
सांवली सुँदर बयार हृदय तल स्पर्शी
शीत की धूप जैसी, लगती अतिप्रिय सी
मित्र तुम विश्वास हो , तुम्हीं मेरे पथिक सहारा
पता नहीं फिर मिले न मिले ये स्वछंद गगन सारा।
तुम पर अर्पित हे मित्र! सर्वस्व मेरा है
शेष तुम्हीं विशेष करो जो भी बचा मेरा है
पता नहीं कब लौटूँगा भेंटने को दोबारा
पता नहीं फिर मिले न मिले ये स्वछंद गगन सारा।
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