गाँव में अब पहले सा घर नहीं
दीवारें लग रहीं वीरान भरी
घर का आँगन सूना है
एक कोने पड़ा बिछौना है
सदस्य घरों के बिछड़ गए हैं
सब अर्जन को शहर गए हैं।
चारपाई कहीं कुम्हला रही है
एकाकी से तिलमिला रही है
पाए सारे मुड़े जा रहे हैं
धागे निवारों के सड़े जा रहे हैं
सालों से उसपे बिस्तर नहीं लगे हैं
सब अर्जन को शहर गए हैं।।
घर के द्वार चौपाल न रही
पंक्षियों की चहचहाट भी नहीं
सब कुछ सूना लगता है
अब साँझ डरावना लगता है
अब घर में बापू मुखिया नहीं रह गए
सब अर्जन को शहर गए हैं।
अब दादी नानी की लोरी नहीं
अब वो हँसी ठिठोली नहीं
वापस आये जब बरसों बाद
तब ढूँढ़ा आराम को खाट
पर अब वो सारे अकड़ गए हैं
शायद कुण्ठा से जकड़ गए हैं
जबसे अर्जन को शहर गए हैं।।
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